मनुष्य हमेशा से अपने पूर्वजों को मुर्ख समझता आया है और वह कभी यह बात मान नहीं सकता कि आदि(!!) मानव ने ऐसे कार्य कर रखे हों जिन्हे करना उसके बूते से बाहर हो (कयी उदाहरण हैं - बाद में)। आज के वेज्ञानिक सिर्फ जितना वह खोद सकते हैं उतना सच मानते हैं और उसके अलावा जो होता है उसे बेबुनियाद कह के सिरे से खारिज कर देते हैं। वह यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि उनकी भी कुछ सीमा (परिमितता) हो सकती हैं। अभी हाल ही में मेरी (गिद्ध सी :D) नज़र
इस लेख पर गयी; समय हो तो ज़रूर पढ़येगा।
1 टिप्पणी:
आजकल दोहे का मोह छूट गया है क्या??
कम से कम लेख ही लिखो, मगर कुछ तो लिखो. :)
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